Add To collaction

लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 60 
ययाति के दमदार प्रदर्शन से प्रदर्शन शाला में चारों ओर से करतल ध्वनि की आवाजें आ रही थी । लोग अपने प्रिय राजकुमार ययाति का पराक्रम देखकर रोमाञ्चित हो रहे थे , मस्ती में झूम रहे थे । ययाति का पराक्रम अतुल्य था । न भूतो न भविष्यति । सम्पूर्णाचार्य ने ययाति को "ध्वनि भेद" विद्या भी सिखाई थी । वे चाहते थे कि ययाति इस कला का  सार्वजनिक प्रदर्शन करे और समूचे भारतको हस्तिनापुर का पराक्रम दिखाये । इसलिए उन्होंने ययाति को ध्वनि भेद विद्या दिखाने का संकेत कर दिया । 

गुरू का संकेत समझकर ययाति हर्षित हो गया और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की तैयारी करने लगा । सम्पूर्णाचार्य के कुछ सहायक अपने हाथों में कुछ जानवर जैसे कुत्ता , बिल्ली लेकर मैदान में पहुंच गये । उनमें से किसी ने ययाति की आंख पर पट्टी बांध दी । कुछ लोगों ने उसे चैक किया कि कहीं ययाति को कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा है ? पूर्णतया आश्वस्त होने के पश्चात कि ययाति को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, उन लोगों ने ययाति को एक धनुष और कुछ बाण पकड़ा दिये । ययाति ने वे बाण अपने तरकस मेः रख लिए और ध्वनि भेद निशाना लगाने के लिए अपनी समस्त शक्ति चारों ओर से आने वाली आवाजों पर लगा दी । उसे भांति भांति की ध्वनियां सुनाई देने लगी । उसका ध्यान केवल आने वाली ध्वनियों पर केन्द्रित हो गया । 

उन सेवकों ने कुछ दूरी पर जाकर अपने साथ लाए कुत्ते को खड़ा कर दिया और उसके ऊपर एक बिल्ली को बैठा दिया । ययाति को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था किन्तु उसे सुनाई सब कुछ दे रहा था । उसने अपनी संपूर्ण ऊर्जा को केवल अपने कानों में संग्रहीत कर लिया । उसे अब अपने आसपास की कोई भी ध्वनि सुनाई नहीं दे रही थी । यह ध्यान की सर्वोत्तम अवस्था होती है । "ध्वनि भेदन" के लिए ध्यान की उस चरम अवस्था की आवश्यकता होती है जहाँ पर किसी को परम् ब्रह्म की ध्वनि अर्थात ॐ का अहनद नाद सुनाई देता हो । साधना से ययाति उस स्थिति में जा चुका था । उसने अपने प्राणों को अपने कानों में स्थापित कर लिया था इसलिए उसका संपूर्ण ध्यान अब केवल अपने लक्ष्य अर्थात कुत्ते और बिल्ली की आवाजें सुनने में केन्द्रित हो गया था । 

वह अपने हाथ में धनुष और दो बाण लेकर सावधान की मुद्रा में "कुत्ते बिल्ली कि ध्वनि का इंतजार कर ही रहा था कि इतने में उसे एक ओर से एक कुत्ते के भौंकने की आवाज सुनाई पड़ी । ययाति की समस्त शक्तियां उस ध्वनि की दूरी और दिशा का पता लगाने में लग गई । ययाति ने बिना एक पल का विलंब किये अपने धनुष की प्रत्यंचा खींची और उस पर दोनों बाणों का संधान किया । उसने एक बाण शीघ्रता से कुत्ते की ध्वनि की दिशा में छोड़ दिया । इतने में उसे बिल्ली की "म्याऊं" की ध्वनि भी सुनाई दे गई । ययाति इसी ध्वनि का तो इंतजार कर रहा था । उसने दूसरा तीर "म्याऊं" की ध्वनि की ओर छोड़ दिया । उसके दोनों बाण छूटते ही कुत्ते और बिल्ली की ध्वनि आनी बंद हो गई और पूरे पाण्डाल में तालियोंका कोलाहल गूंज उठा । 

उसने झटपट अपनी आंखों पर से पट्टी हटाई और अपने सामने खड़े कुक्कुर और उस पर बैठी मार्जारी को देखा । उसके दोनों बाणों से उन दोनों पशुओं का मुंह बिंधा हुआ था । आश्चर्य की बात यह थी कि दोनों पशुओं को कोई चोट भी नहीं आई थी । धनुर्विद्या का चरम प्रदर्शन था यह जो किसी चमत्कार से कम नहीं था । इस चमत्कार को देखकर सम्पूर्णाचार्य, महाराज नहुष और महारानी अशोक सुन्दरी सहित पूरी प्रदर्शन शाला "धन्य धन्य" पुकार उठी । सम्पूर्णाचार्य का मस्तक अपने शिष्य के द्वारा "ध्वनि भेद" करने से गर्व से उन्नत हो गया था । महाराज नहुष का सीना अपने पुत्र के पराक्रम से और भी चौड़ा हो गया था और महारानी अशोक सुन्दरी के हृदय की स्थिति तो अवर्णनीय थी । उनके रोम रोम से अपने पुत्र के लिए लाखों लाख आशीर्वाद निकल रहा था । वहां पर उपस्थित गुरुकुल के समस्त शिष्यों ने ययाति को अपने कंधों पर उठा लिया और वे उसे अपने कंधों पर उठाए हुए ही प्रदर्शन शाला के चारों ओर परिक्रमण करने लगे । 

प्रदर्शन शाला में उपस्थित अनेक राजकुमारियां ययाति की सुन्दरता, उसके सुगठित शरीर और उसकेत पराक्रम को देखकर उस पर बुरी तरह मोहित हो गई थीं । उनके अंग प्रत्यंग में प्रेम की लौ जलने लगी थी । प्रेम के संगीत की स्वर लहरियों से वे तरंगित हो रही थीं । उनके कमल सदृश लोचनों से ययाति पर मद्य की अनवरत वर्षा होने लगी थी । उनके घने काले केशों से प्रेम की सुगंध बहने लगी थी । सब राजकुमारियों के अधर ययाति के अधरों का पान करने को लालायित होने लगे थे । उनकी बांहें ययाति के आलिंगन में कसने को मचलने लगी थीं । प्रेम के प्रबल प्रवाह के कारण उनके वक्षों में और अधिक उभार आ गया था तथा कठोरता भी आ गई थी , जिसके कारण उनकी कंचुकी के कुछ बंध चरमराकर टूट गये थे । उनके उत्तरीयों ने ऐसी राजकुमारियों जिनकी चोली के बंध टूट गये थे, की लाज की रक्षा कर ली थी अन्यथा उनकी कंचुकी के बंधों ने तो आज उन्हें इतने लोगों के मध्य बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । उनके उर से निकलने वाली गर्म श्वासें यह बता रही थीं कि वे प्रेम रूपी ज्वर के संताप से बहुत अधिक विकल हैं । उनके मन में बस एक ही कामना थी कि काश ! एक बार ययाति के हृदय में वे अपना स्थान बना पातीं तो उनका यह जीवन सार्थक हो जाता । 

महाराज नहुष, महारानी अशोक सुन्दरी , सम्पूर्णाचार्य और अन्य राजागण पुष्पमाल अपने हाथों में लेकर प्रदर्शन शाला के बीचों बीच आ गये । वहां ययाति अपने अनुजों और अपनी मित्र मण्डली के साथ खड़े थे । ययाति ने सर्वप्रथम अपने गुरू सम्पूर्णाचार्य के चरणों में साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया । गुरू सम्पूर्णाचार्य ने उसे अनेकानेक आशीर्वाद दे डाले और उन्होंने ययाति से कहा 
"एक गुरू को अपने शिष्य के कौशल को देखकर जो प्रसन्नता होती है वत्स, आज तुमने मुझे उस प्रसन्नता से मालामाल कर दिया है । गुरू का शिक्षा देना तब और भी अधिक सार्थक हो जाता है जब कोई शिष्य उस शिक्षा में अपनी ओर से कुछ और मिलाकर उसे बेहतरीन ढंग से प्रदर्शित करे । जैसे एक साहूकार को अपना धन ब्याज सहित वापिस प्राप्त करने में जो आनंद आता है आज वही आनंद तुमने मुझे दिया है पुत्र । जो कुछ मैंने तुम्हें सिखाया था , तुमने उससे कही श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है । मुझे तुम्हारे जैसा शिष्य पाकर गर्व की अनुभूति हो रही है पुत्र" । कहते हुए सम्पूर्णाचार्य ने ययाति को अपने अंक में भर लिया । 

ययाति इसके पश्चात अपने पिता महाराज नहुष के पैरों में गिर पड़े । ययाति ने आज कितने दिनों बाद देखा था उन्हें । याति के वन गमन का समाचार उसने भी सुना था । दुखी वह भी था किन्तु उसने अपना ध्यान भंग नहीं होने दिया । याति के सन्यासी बन जाने से महाराज कितने दुखित रहते होंगे, यह उनके चेहरे से लुप्त कांति से पता चल रहा था । उनका चेहरा म्लान हो रहा था किन्तु ययाति के इस पराक्रम से उनके मुंह की कांति लौट आई थी । 

नहुष ने ययाति को अंक में भरकर जोरों से भींच लिया । ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि मंदराचल और सुमेर पर्वतों का मिलन हो रहा हो । जब पुत्र अपने पिता के द्वारा खींची गई लकीर को पार कर बहुत आगे निकल जाता है तो पिता को जो प्रसन्नता मिलती है वह अवर्णनीय होती है । महाराज नहुष ने ययाति का ललाट चूमकर उसे आशीर्वाद दिया "ऐश्वर्यवान बनो" । महाराज नहुष को क्या पता था कि अधिक ऐश्वर्य मनुष्य को भोग विलास के मार्ग पर धकेल देता है और भोग विलास का मार्ग अपनाने वाले व्यक्ति का पतन होना निश्चित है । तो क्या ययाति के पतन की कहानी उसके पिता महाराज नहुष ने ही लिख दी थी ? कहना बहुत कठिन है कि ययाति के पतन के लिए नियति अधिक उत्तरदायी थी, देवयानी और शुक्राचार्य का आतंक अधिक उत्तरदायी था अथवा नहुष का आशीर्वाद ? 

ययाति ने अपनी माता की ओर देखा । ममता का सागर हिलोरें ले रहा था उनकी आंखों में । जहां कोई अभिलाषा न हो, कामना न हो, केवल प्रेम , ममता , वात्सल्य हो वह हृदय तो एक मां का ही हो सकता है । पत्नी भी प्रेम करती है , असीमित प्रेम करती है पर वह प्रेम का प्रतिदान चाहती है । उसका प्रेम निश्चल नहीं होता किन्तु जगत में माता ही एक ऐसी है जो सदैव केवल लुटाना जानती है । प्यार , ममता , करुणा , दया और क्षमा का भाव । 

अशोक सुन्दरी का हृदय भग्न था । याति बिना बताए ही "श्रंगार प्रासाद" छोड़कर चला गया था । अपने हृदय की व्यथा अपनी मां को भी बताना आवश्यक नहीं समझा उस निर्दयी ने । अशोक सुन्दरी को याति के वन गमन से भी अधिक क्लेश इस बात से पहुंचा कि उसने मां को वन गमन का कारण कुछ नहीं बताया था । एक मां ही तो होती है जिसके सम्मुख उसका पुत्र महीनों नग्न घूमता रहता है । जब वही संतान एक मां से कुछ छुपाने का प्रयास करती है तो एक मां की आत्मा कराह उठती है , चीख पड़ती है, क्रंदन करने लगती है । ययाति ने मां के हृदय के हरे व्रण (घाव) देख लिये थे इसलिए वह उनमें मलहम लगाने के लिए मां के आंचल में लिपट कर उनके चरणों में बैठ गया । उसके इस व्यवहार से मां के कलेजे को कितनी ठंडक पहुंची होगी, बताना असंभव है । 

अशोक सुन्दरी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और उसके पश्चात वह ययाति के गाल, ललाट, अधरों पर हाथ फिराने लगी । ययाति ने लपक कर मां की एक उंगली अपने मुंह में ले ली और हलके से काट ली । 
"उई मां, शैतान कहीं का ! इतना बड़ा हो गया है किन्तु बचपना अभी तक भी नहीं गया है इसका । अभी भी छोटे बच्चों की तरह व्यवहार कर रहा है । अरे, तू हस्तिनापुर का भावी सम्राट है और मैं तेरी भावी राजमाता । फिर भी ऐसे ही काटेगा क्या तू" ? इस उलाहने में ताना कम और प्यार मिश्रित आशीर्वाद अधिक था । ययाति अपना मुंह मां के आंचल से पोंछने लगा "अरे दुष्ट, क्या कर रहा है ? आचार्य देख रहे हैं, कुछ तो शर्म कर" ! 

सम्पूर्णाचार्य अपने को मां बेटे के इस प्रेम में सराबोर झगड़े से पृथक करते हुए बोले "मां पुत्र के वात्सल्य के मध्य आचार्य को मत रखो महारानी जी । यह निश्चल प्रेम जगत में अत्यंत दुर्लभ है । यह प्रेम वैसा ही है जैसा कि परमात्मा अपने भक्त पर लुटाते हैं, उसकी मान मनौव्वल करते हैं , उसके नखरे सहन करते हैं । भगवान श्रीकृष्ण को अहीरों की छोरियां जरा सी "छाछ" के लिए घण्टों तक नाच नचवाती थीं और भगवान भी प्रेम के इतने भूखे हैं कि वे भी ठुमके लगा लगाकर नाचते रहते थे । निश्चल प्रेम का माहात्म्य है ही ऐसा । कुछ कुछ वैसा ही दृश्य देख रहा हूं मैं यहां" । सम्पूर्णाचार्य मुस्कुरा कर बोले । 

सयाति, अयाति, वियाति और कृति ने भी क्रमश : गुरू, पिता और माता के बारी बारी से चरण स्पर्श किये । सबने उन्हें झोली भर भर के आशीर्वाद प्रदान किये । अन्य राजागण भी अपनी महारानियों और राजकुमारियों के साथ वहां पर आ गये और तीनों भ्राताओं को आशीर्वाद तथा उपहार भेंट करने लगे । 

विभिन्न देशों से आने वाली राजकुमारियों में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी कि वे कैसे ययाति का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करें ? इसके लिए वे भांति भांति के यत्न करने लगीं । ययाति याति नहीं था जो सुन्दरियों से दूर दूर भागा फिरता था । ययाति सौन्दर्य का उपासक था । वह सौन्दर्य की पूजा करता था । उसने बारी बारी से समस्त राजकुमारियों पर विहंगम दृष्टिपात किया और उन्हें देखकर बस मुस्कुरा दिया । उसकी इतनी सी कृपादृष्टि से अनेक राजकुमारियां निहाल हो गईं । कइयों ने तो मन ही मन भोलेनाथ को याद करके सोलह सोमवार व्रत रखने का वचन देकर ययाति को मांग लिया था । भोले भण्डारी किस पर कृपा करेंगे यह तो भोले बाबा ही बता सकते हैं ! । 

मृदुला कनखियों से सयाति को निहारने लगी । सयाति की दृष्टि मृदुला पर पड़ी तो मृदुला उसकी ओर प्रेम वर्षा करती हुई हौले से मुस्कुरा दी । सयाति का हृदय प्रेम से आह्लादित हो गया । मृदुला और सयाति के "सैन" मां की आंखों के कैमरे में कैद हो गये । वह तो मृदुला को महारानी बनाना चाहती थी पर मृदुला ने केवल रानी बनना चुना है तो वह कर भी क्या सकती है ? भगवान जाने किसके भाग्य में क्या लिखा है ? वह मृदुला की ओर देखकर मुस्कुरा दी । अपनी चोरी पकड़ी जाने पर मृदुला झेंप गई और अपनी मां के पीछे जाकर छुप गई । 

महाराज और महारानी ने समस्त अतिथिगणों को ससम्मान विदा किया और अपने तीनों पुत्र ययाति, सयाति, और अयाति को साथ लेकर राजप्रासाद लौट गये तथा वियाति और कृति को ढेर सारा प्रेम करके उन्हें गुरुकुल में ही छोड़ आये । 

श्री हरि 
24.7.23 

   19
4 Comments

RISHITA

02-Sep-2023 09:34 AM

Awesome part

Reply

madhura

01-Sep-2023 10:40 AM

Nice story

Reply

Anjali korde

29-Aug-2023 11:00 AM

Very nice

Reply